मध्य प्रदेश में सागर जिले के उत्तर में झांसी मार्ग से करीब 44 किमी की दूरी पर है धामौनी का किला। इसे मंडला वंश के वंशज सूरत शाह ने बनवाया था। यह किला बुंदेला राजपूतों, छत्रसाल, मुगलों और बाद में अंग्रेजों के अधीन रहा। इस किले की खासियत थीं इसके तीन ओर मौजूद गहरी और चौड़ी खाइयां। मोटी और ऊंची दीवारों पर सैनिकों की तैनाती के लिए 52 बुर्ज बने हुए थे। किले के प्रवेश द्वार को देखकर इसकी भव्यता का अंदाजा लग जाता है। लेकिन किले के अंदर घुसते ही भव्यता फीकी पड़ जाती है क्योंकि किला अब उजाड़ हो चुका है। आसपास के दबंगों ने गड़े धन के लालच में इस किले को खोद डाला और यह खुदाई अब भी हो रही है।
किले तक जाने के लिए धामौनी से करीब 2 किलोमीटर पैदल चलना होगा। रास्ता ऊबड़-खाबड़ और पथरीला है। थोड़ी बारिश होने पर ही यह रास्ता पूरी तरह बंद हो जाता है। यह रास्ता एक विशाल कब्रिस्तान से गुजरता है। कब्रें बहुत खूबसूरत नक्काशी वाले पत्थरों से ढकी हैं। किले के विशाल मुख्य द्वार से अंदर घुसते ही आपकी नजर पड़ेगी हाथी दरवाजे पर। हाथी दरवाजे के अंदर है दो हाथियों को बांधने की जगह। हालांकि यह भी जर्जर होने लगी है। हाथी दरवाजे से निकलेंगे तो कचहरी की ओर जाने का रास्ता मिलेगा, जहां राजा का दरबार लगता था और जहां दोषियों को सजा सुनाई जाती थी। चारो ओर से मोटी दीवारों से घिरी हुई कचहरी। यहां भी जगह-जगह खुदाई हुई है, गड़ा धन निकालने के लिए।
कचहरी से थोड़ी दूरी पर है रानीमहल। कचहरी से रानी महल की दूरी महज 200 मीटर की है, लेकिन रानीमहल की ओर जाने वाला रास्ता भूल-भुलैया जैसा है। आड़े-तिरछे रास्ते से होकर जाना होगा रानी महल तक। बताया जाता है कि रानी महल की ओर जाने वाले इस रास्ते को इस तरह डिजाइन किया गया था, जिससे कभी कोई किले पर हमला कर दे, तो आसानी से रानीमहल तक न पहुंच पाए और भटक जाए।
Dhamoni Fort Mughal Empire
किले के अंदर दो बावड़ियां भी हैं। इन्हीं बावड़ियों से किले में पानी पहुंचाया जाता था। अब ये जर्जर हो चली हैं। किला अंदर से अब डरावना लगता है। किले के अंदर जगह-जगह झाड़ियां और बड़े-बड़े पेड़ हैं।
पास के गांव झारई के साहब सिंह यादव कहते हैं कि अब किला देखने के लिए भी कम लोग आते हैं। यहां कोई व्यवस्था नहीं है। इससे लोगों को यहां आने में डर लगता है। रात में किले में जंगली जानवर भी रहते हैं। भालू, तेंदुआ, सुअर, मोर जैसे जानवर खूब दिखाई देते हैं। दिन में भी कोई अकेले किले के अंदर नहीं जा सकता।
किले के उजाड़ और जर्जर होने की बड़ी वजह है आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) की लापरवाही। यह किला एएसआई के जबलपुर सर्किल में आता है। एएसआई जबलपुर सर्किल की ओर से किले की निगरानी और देखरेख के लिए दो कर्मचारियों की तैनाती है। एक कर्मचारी की ड्यूटी दिन में और एक की रात में रहती है। लेकिन कर्मचारी डर की वजह से यहां एक-दो चक्कर लगाकर ही चले जाते हैं, वह भी सिर्फ दिन में। रात में यह किला पूरी तरह वीरान हो जाता है।
धामौनी का यह किला विंध्य पर्वत श्रेणी के एक छोटे नुकीले भाग पर बना है। इसके दोनों ओर गहरी खाइयां हैं, जिसके बीच से धसान नदी की दो शाखाएं बुंदेलखंड के मैदानों में बहती है। किले का आधार ऊंची समतल भूमि पर है और इसके दोनों किनारे खाइयों पर सीधे लकटते हुए दिखते हैं।
किला 52 एकड़ जमीन में त्रिभुज आकार में बना है। इसका परकोटा 50 फुट ऊंचा और 15 फुट चौड़ा है। किले में 10 मंजिलें हैं। इनमें ऊपर से नीचे की ओर जाने का रास्ता है। सबसे निचले भाग पर फांसीघर बना है। बाहर से किले की दो मंजिलें ही दिखती हैं। बाकी 8 मंजिलें तलघर में हैं, जिन तक पहुंचना अब मुश्किल है।
Dhamoni Fort Mughal Empire
इलाके में प्रचलित एक दंत कथा के अनुसार, मुगलकाल का मशहूर इतिहासकार अबुल फजल भी यहीं पैदा हुआ था, हालांकि इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। आइन-ए-अकबरी में इसका जिक्र मिलता है। किसी जमाने में यहां हाथियों की खरीद-बिक्री के लिए बाजार लगता था।
यह किला ओरछा के राजा वीरसिंहदेव के राज्य में था। उनका शासन काल 1605 से 1627 तक था। उन्होंने किले को काफी हद तक दोबारा बनवाया था। यहां मुस्लिम संतों की दो मजारें भी हैं। इनमें से एक बालजीत शाह की मजार है, जिन्हें अबुल फजल का गुरु माना जाता है। दूसरी मजार मस्तान शाह वली की मानी जाती है। यहां साल में एक बार गर्मियों के मौसम में उर्स का आयोजन किया जाता है।
यह किला पहले हिंदू राजाओं के हाथ में था। बाद में यह इलाका तुर्कों और मुगलों के कब्जे में चला गया। राजा छत्रसाल के समय में धमौनी दुर्ग मुगलों के हाथ में था। साल 1672 में छत्रसाल ने इस किले को मुगल सरदार खालिक से जीत लिया और उससे 30 हजार रुपये जुर्माने के रूप में वसूले थे। बाद में धमौनी का किला मुगलों के हाथ में चला गया। साल 1678 में छत्रसाल ने इस दुर्ग पर दोबारा आक्रमण किया। उस समय सदरुद्दीन सूर धमौनी का फौजदार था। साल 1679 में छत्रसाल ने किला जीत लिया। साल 1680 में छत्रसाल की सदरुद्दीन सूर से दोबारा भिड़ंत हुई। उसी युद्ध में घायल होकर सदरुद्दीन मारा गया।
कहा जाता है कि मुगल बादशाह औरंगजेब ने राजा छत्रसाल को एक पत्र लिखा कि वह छत्रसाल को अपने राज्य का मनसबदार बनाना चाहता है। छत्रसाल को 5,000 पैदल सेना रखने की अनुमति दी गई थी और धमौनी का इलाका छत्रसाल को देने का प्रस्ताव किया गया था। लेकिन छत्रसाल ने इसे खैरात की तरह देखा और इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया।